Mon. Feb 17th, 2025
    धर्म का प्रभाव

    ” धर्म का प्रभाव”

    मनुष्य पैदा होता है, तो धर्म उसके साथ रहता है। धर्म का हमारे जीवन से महत्त्वपूर्ण रिश्ता है। हम यह नहीं सोचते हैं कि धर्म क्या है तथा इसका क्या उद्देश्य है? इन प्रश्नों को जानने का प्रयास ही नहीं करते हैं। हमने धर्म से संबंधित ऐसे अंधविश्वास पाल लिए हैं , जो हमें उससे आगे सोचने ही नहीं देते हैं। समय बदल रहा है, हमारे पास वैज्ञानिक दृष्टिकोण आ गया है। लेकिन इस दृष्टिकोण को लोग त्याग देते हैं। उनके लिए विज्ञान और धर्म दो अलग-अलग राहें हैं। इन्हें आपस में जोड़ देना उचित नहीं है। इसे प्रकृति से जुड़ी कोई घटना नहीं मानते हैं। बस धर्म में यदि चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण को लेकर कोई व्याख्या कर दी गई है, तो वही सत्य है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण को हम किनारा कर देते हैं। धर्म का संबंध हम ईश्वर से तथा उसके पूजने के तरीक़ो तक़ सीमित कर देते हैं। इसके अतिरिक्त हम मनुष्य तक़ को इस आधार पर विभाजित कर देते हैं। यही कारण है कि आज मनुष्य हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई ,बौद्ध इत्यादि धर्मों में विभाजित हो गया है। यह वह अंधविश्वास है, जो मनुष्य सदियों से पालता आया है और आगे भी इस पर विश्वास रखेगा। बात फ़िर इस प्रश्न पर आकर रूकती है कि धर्म है क्या?
    मनुष्य द्वारा किसी की सहायता करना, किसी के दुःख को कम करने के लिए किए गए कार्य आदि धर्म कहलाता है। यही सही अर्थों में धर्म है। धर्म यह नहीं है कि ईश्वर को पूजने के लिए कौन-से तरीक़े अपनाएँ जाएँ। पूजा पद्धति इसलिए अस्तित्व में आई ताक़ि मनुष्य का ध्यान केंद्रित किया जा सके। उसे बुरे मार्ग में भटकने से रोका जाए। इस तरह से ईश्वर का ड़़र दिखाकर उसे अधर्म करने से रोका गया। धीरे-धीरे कब इसमें अंधविश्वास का समावेश हो गया ,पता ही नहीं चला। हम धर्म से हट गए। पूजा पद्धति को धर्म मानने लगे। व्रत, पूजा आदि को बढ़ावा मिलने लगा। हम इन मान्यताओं पर इतना विश्वास करने लगे कि मानवता से हमारा नाता टूट गया। हमारा विश्वास और आस्था मंदिर, मस्जिद तथा चर्च तक सीमित रह गई। हमने सड़क पर घायल पड़े व्यक्ति की ओर देखना धर्म नहीं समझा। हमने मंदिर पर दीपक जलाना अधिक धर्म समझा। यह धर्म नहीं है। मानवता सही अर्थों में धर्म है।हमारे पूजनीय पुरुषों ने मनुष्य को बुरे मार्ग से बचाने का लिए धर्म का सहारा लिया गया था। मनुष्य अपने जीवन में अच्छाई, परोपकार और प्रेमभाव की भावनाओं को बनाए रखें इसीलिए धर्म का निर्माण किया गया। उसे पूजा-पाठ, नमाज़-रोजे, प्रार्थना आदि करने के लिए ज़ोर दिया गया, जिससे उनका मन शान्त रहे। सभी धर्मों ने कुछ बातों पर विशेष रूप से ज़ोर दिया है। उसके अनुसार मनुष्य, मनुष्य मात्र से प्रेम करें, सबके साथ मिलकर रहें, सबका कल्याण करें इत्यादि बातें कहीं गईं हैं। किसी धर्म ने यह कभी नहीं कहा कि वह आपस में लड़ मरें। हमारा आस्था और विश्वास में कमज़ोरी हमारी संकीर्ण सोच का परिणाम है। अतः हमें धर्म और धर्म के प्रभाव के बारे में दोबारा से सोचना पड़ेगा।
    मानव सभ्यता में धर्म का अस्तित्व सबसे स्थायी सामाजिक घटनाओं में से एक है, जो समाजशास्त्रीय विश्लेषण को प्रेरित करता है। यह दैनिक सामाजिक जीवन के ताने-बाने से जुड़ा हुआ है। धर्म समाज में स्थिरता लाने वाला प्रभाव डालता है, फ़िर भी इसका इस्तेमाल नफ़रत फ़ैलाने और मानवता के ख़िलाफ़ अपराध करने के लिए भी किया जाता है। यह असमानता और शोषण को सही ठहराने का प्राथमिक स्रोत रहा है। धर्म हर समुदाय में एक संस्था के रूप में मौजू़द है। समाजशास्त्रियों ने धर्म द्वारा मनुष्यों को दिए जाने वाले विभिन्न अर्थों को समझने का प्रयास किया है। सामाजिक जीवन के संगठन में इसका महत्त्व बहुत अधिक है। यह लोगों को जीवन के संकटों से निपटने में सहायता करता प्रतीत होता है।
    धर्म में ऐसी मान्यताएँ और व्यवहार शामिल होते हैं जो समाज की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। धर्म सांस्कृतिक होने के साथ-साथ सार्वभौमिक भी है ,क्योंकि यह सभी समुदायों में किसी न किसी रूप में पाया जाता है।
    यह असमानता और शोषण को सही ठहराने का प्राथमिक स्रोत रहा है। धर्म हर समुदाय में एक संस्था के रूप में मौजू़द है। समाजशास्त्रियों ने धर्म द्वारा मनुष्यों को दिए जाने वाले विभिन्न अर्थों को समझने का प्रयास किया है। सामाजिक जीवन के संगठन में इसका महत्त्व बहुत अधिक है। यह लोगों को जीवन के संकटों से निपटने में सहायता करता प्रतीत होता है।
    भारत में प्रमुख धर्म-
    भारत की धार्मिक परंपराओं की जटिलता और विविधता को देखते हुए, उन्हें यहाँ गिनना और उनका वर्णन करना कठिन है। हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, बौद्ध, जैन और अन्य धर्मों और मतों, जिनमें अघोषित समूह भी शामिल हैं,जिनकी पहचान भारत की जनगणना द्वारा की जाती है। धर्म में ऐसी मान्यताएँ और व्यवहार शामिल होते हैं जो समाज की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं। धर्म सांस्कृतिक होने के साथ-साथ सार्वभौमिक भी है क्योंकि यह सभी समुदायों में किसी न किसी रूप में पाया जाता है।
    मानव सभ्यता में धर्म का अस्तित्व सबसे स्थायी सामाजिक घटनाओं में से एक है जो समाजशास्त्रीय विश्लेषण को प्रेरित करता है, यह दैनिक सामाजिक जीवन के ताने-बाने से जुड़ा हुआ है।
    विद्वान क्या मानते हैं?
    विद्वानों ने कहा है कि धर्म मानव जीवन को इस हद़ तक महत्त्व देता है कि इसे उन लोगों के लिए राहत का स्रोत माना जाता है जो जीवन की कठिनाइयों में फंसे हुए हैं।
    समाजशास्त्रियों ने आदिम से लेकर ‘आधुनिक’ समाजों तक़ धर्म के विकास की जांच की है। ‘आधुनिक’ समुदायों में इसकी स्थिति क्षीण या कम होती हुई प्रतीत होती है, हालांकि धार्मिक पहचान, संघर्ष और आंदोलनों के विस्तार के प्रमाण मौजूद हैं।
    इस परिप्रेक्ष्य में, भारत के विभिन्न धर्मों के उद्भव और उनके वर्तमान स्वरूप को समझना और भी अधिक महत्त्वपूर्ण है।
    धर्म: एक साझा समझ-
    धर्म को विभिन्न तरीक़ो से वर्णित किया जा सकता है जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में भिन्न होते हैं!
    कुछ लोगों के लिए यह पूरी तरह से व्यक्तिगत है क्योंकि यह व्यक्ति के विवेक में गहराई से निहित है।
    दूसरों के लिए, यह किसी व्यक्ति के कार्यों को नियंत्रित करने का एक साधन हो सकता है। धर्म, अपने सबसे बुनियादी रूप में, वह सब कुछ है जो अनुष्ठानों, त्योहारों, संगीत, कला या किसी अन्य सांस्कृतिक विशेषता के माध्यम से अभ्यास किया जाता है।
    दिलचस्प बात यह है कि धर्म भूगोल और संस्कृति से भी प्रभावित होता है, इसलिए इसकी कई व्याख्याएँ मौजू़द हैं। दूसरी ओर, धर्म एक वैश्विक नेटवर्क है जो हर समुदाय में मौजूद है और व्यवस्था और सामाजिक नियंत्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
    धर्म को कुछ शक्तिशाली या सतही चीज़ के रूप में समझा जा सकता है जिसे समाजशास्त्र के अध्ययन में समझाया नहीं जा सकता। सामाजिक वैज्ञानिकों का प्राथमिक ध्यान समाज और धर्म के बीच संबंधों की जांच करना रहा है। धर्म का हर दूसरी सामाजिक संस्था पर व्यापक प्रभाव पड़ता है, चाहे वह शिक्षा हो, विवाह हो या रिश्तेदारी। तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए, समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से आदिम समुदायों में धर्म की उत्पत्ति का पता लगाना आवश्यक है। धर्म पर कई तर्क और सिद्धांत हैं; फ़िर भी, धर्म के प्रति समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण तीन महान समाजशास्त्रीय विचारकों – कार्ल मार्क्स, मैक्स वेबर और एमिल दुर्खीम की अवधारणाओं से काफ़ी प्रभावित है।
    धर्म और दुर्खीम-
    एमिल दुर्खीम- (1858-1917), फ्रांस के एक समाजशास्त्री थे, जिन्होंने कार्यात्मक विचारधारा की स्थापना की। वे सामूहिक कार्यप्रणाली और सामाजिक एकजुटता की अवधारणा के कट्टर समर्थक थे।दुर्खीम का मानना ​​था कि धर्म सिर्फ़ विश्वासों का समूह नहीं है। इसमें समारोह, अनुष्ठान और रीति-रिवाज़ शामिल हैं, जिसमें एक निश्चित धार्मिक समुदाय एक साथ आता है और एक समूह के रूप में धार्मिक गतिविधियाँ करता है।
    इस प्रकार, एक सामाजिक संस्था के रूप में धर्म लोगों को एकजुट करने और उनकी एकजुटता की भावना को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
    धर्म और वेबर-
    मैक्स वेबर- (1864-1920), जर्मनी के एक समाजशास्त्री थे, जो तर्कसंगतता की उत्पत्ति और धर्म किसी भी समुदाय की अर्थव्यवस्था को कैसे प्रभावित करता है, में रुचि रखते थे।
    वेबर का मानना ​​था कि प्रोटेस्टेंट देशों में भौतिक समृद्धि पाने के लिए कठिन प्रयास को पाप के बजाय ईश्वर की इच्छा माना जाता है।इसके विपरीत, पूर्वी देशों में वित्तीय समृद्धि को पूंजीवाद का उप-उत्पाद माना जाता है, जबकि आध्यात्मिक जीवन को सबसे मूल्यवान माना जाता है। वेबर ने पूर्वी देशों में धर्म को “तर्कहीन धार्मिक व्यवस्था” कहा क्योंकि यह तर्कसंगतता के लिए एक बाधा के रूप में कार्य करता है ।
    कार्ल मार्क्स- (1818-1883) जर्मनी के एक दार्शनिक और साम्यवादी थे, जो समाज के आर्थिक पहलुओं और उसके परिणामस्वरूप होने वाले संघर्ष से विशेष रूप से चिंतित थे।
    उनका मानना ​​था कि धर्म लोगों को शाश्वत आनंद और मोक्ष का आश्वासन देता है, जिससे वे अपने भाग्य को स्वीकार कर लेते हैं। उन्होंने दावा किया कि धर्म लोगों को समाज की असमानताओं के प्रति अंधा बना देता है और निराश्रितों तथा वंचितों के दुखों को बढ़ा देता है।
    निष्कर्ष:-
    धर्म, अपने सबसे बुनियादी रूप में, नैतिक विचारों और नियमों की एक कठोर प्रणाली है जो हर समुदाय में विभिन्न रूपों में मौजूद है। समाज के संदर्भ में, धर्म की भूमिका को विभिन्न दृष्टिकोणों के माध्यम से समझा जा सकता है, जिनमें से सभी महत्त्वपूर्ण दावे देते हैं। दुर्खीम के अनुसार, धर्म एक बाध्यकारी शक्ति है जो किसी व्यक्ति के नैतिक कार्य को निर्धारित करती है। वेबर का मानना ​​​​था कि धर्म का हर समुदाय पर बहुत बड़ा प्रभाव है और यह सामाजिक परिवर्तन ला सकता है। इसके विपरीत, मार्क्स के अनुसार, “धर्म जनता की अफ़ीम है”। यह एक स्तरीकरण तंत्र है जो समाज की मौजूदा असमानताओं को बढ़ाता है। हालाँकि, वे सभी मानते थे कि उन्नत, समकालीन और पूंजीवादी दुनिया में, धर्म अपनी कठोरता खो देगा और अपने पारंपरिक स्वरूप से दूर हो जाएगा।

    -डॉ.दक्षा जोशी ‘निर्झरा ‘
    अहमदाबाद,गुजरात।


    धर्म का प्रभाव

    Average Rating

    5 Star
    0%
    4 Star
    0%
    3 Star
    0%
    2 Star
    0%
    1 Star
    0%

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *