“ यादें सुहानी बचपन की “
एक बचपन का ज़माना था,
जिसमें ख़ुशियों का ख़जाना था।
चाहत चाँद को पाने की थी,
पर दिल तितली का दिवाना था।
ख़बर ना थी कुछ सुबह की,
ना शाम का ठिकाना था।
थक कर आना स्कूल से,
पर खेलने भी जाना था।
माँ की कहानी थी,
परियों का फ़साना था।
बारीश में काग़ज़ की नाव थी,
हर मौसम सुहाना था।
हर खेल में साथी थे,
हर रिश्ता निभाना था।
ग़म की जुबान ना होती थी,
ना ज़ख़्मों का पैमाना था।
रोने की वजह ना थी,
ना लड़ने का बहाना था।
क्युँ हो गऐे हम इतने बडे,
इससे अच्छा तो वो बचपन का जमाना था।
छोटी-छोटी चीज़ों में
ख़ुशियाँ थी बड़ी-बड़ी!
हर काम में मिलतीं थीं शाबाशियाँ घड़ी-घड़ी!
ना था कोई परेशानियों का मेला;
ना जिम्मेदारियों का था झमेला!
वो बचपन की बस्ती,
मासूमियत भरी मस्ती!!
लगाई जाती थी जब
तरकीबें नई-नई,
कारस्तानियों की
लग जाती थी झरी!
भोली सी शैतानियाँ,
अल्हड़ सी नादानियाँ,
दादी-नानी से सुनी जाती थी कहानियाँ!
सच लगती थी जिनकी सारी जुबानियाँ !
वो बचपन की बस्ती,
मासूमियत भरी मस्ती!!
जब ख़ुशियाँ थीं सस्ती,
अपनों का प्यार,
अनोखा सा वो संसार,
सपनों की बहती थी जहाँ कश्ती!
अपनी ख़ुश्बू से अनजान, कस्तूरी-हिरण सी वो हस्ती,
वो बचपन की बस्ती,
मासूमियत भरी मस्ती!!
आँखों में चमक,
अंदाज़ में धमक,
खिलखिलाहट से
गुंज उठती थी खनक!
बातों में होती थी चहक,
अपनेपन की ख़ास महक!
वो बचपन की बस्ती,
मासूमियत भरी मस्ती!!
सवालों के ढेर, खेलने के फेर,
किसी से नहीं होता था कोई बैर!
शिकवे-शिकायतों की
आती ना थी भाषा,
ना था अपने-पराए का
भेद ज़रा सा!
वो बचपन की बस्ती,
मासूमियत भरी मस्ती!!
कुदरती वो ख़ूबसूरती ढूंढते हैं ,आज ख़ुद में सभी,
वक़्त के बदलते करवटों के साथ बदलता गया एहसास!
पर आज भी है वो बचपन
बड़ा खास, दिल के पास!
वो बचपन की बस्ती,
मासूमियत भरी मस्ती!!
-डॉ .दक्षा जोशी।